मंगलवार, 26 मई 2009

गजब का कान्फिडेंस!

प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर कोश्यारी खेमे का उत्साह देखते ही बनता था। मई की 23 तारीख को जब दिल्ली में उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन पर फैसला होने जा रहा था तब बीरबल ने एक कोश्यारी भक्त नेता से दिल्ली में होने वाले फैसले के बारे में टोह लेनी चाही तो वह बोले,'फैसला हो चुका, परसों शपथग्रहण है।'वह अपन को इनवाइट करना भी नहीं भूले। उनके जज्बे से हैरान बीरबल ने ज्योंही दिल्ली को टटोला तो पता चला कि भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक तो अभी चल रही है। खबर तो यहां तक है कि सोमवार को होने वाले शपथग्रहण के लिए टेंट का आर्डर भी दे दिया गया था। राजनीति में इतना गजब का कान्फिडेंस? क्यों न हो! सैंया भए तो............

टी-२० के मूड में राजनाथ

पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी को लोकसभा चुनाव में ठिकाने लगाने में कामयाब रहे भाजपा के राजपूत शिरोमणि राजनाथ सिंह अब गिलक्रिस्ट की तरह ताबड़तोड़ बैटिंग के मूड में हैं। आडवाणी को आजीवन प्रतीक्षालय में भेजने के बाद राजनाथ अब निष्कंटक हैं। क्योंकि वह जब अध्यक्ष बनाए गए तो उसी दिन आडवाणी की खड़ाऊं पकड़ा कर उनको बता दिया गया कि भारत के महामहिम राष्ट्रपति की भांति उन्हें भी आडवाणी और नागपुर के आदेश बिना पढ़े जनता तक ढ़ोने हैं। तब उनके सिर्फ दस्तखत थे लेकिन राज उनका नहीं था और नाथ भी कोई और था। अब राज भी उनका है और नाथ भी वही। इसलिए चुनाव हारने के बाद उन्होंने सबसे पहले उत्तराखंड में चैन की बांसुरी बजा रहे जनरल खंडूड़ी को निपटाने का प्रोजेक्ट हाथ में लिया। वो तो अध्यक्ष जी एक ही वार में जनरल का काम तमाम कर चुके होते लेकिन एक बार फिर आडवाणी ने बचा लिया। पर राजनाथ गुर्रा रहे हैं कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी?आज नहीं तो कल सही। परंतु अपने जनरल खंडूड़ी भी कोई कम ऊंचे दर्जे के थोड़े ही हैं। लोकसभा चुनाव में 5-0 से सफाये के बाद खुद हाई मारेल ग्राउंड पर रखने के लिए इस्तीफे की पेशकश कर आए यानी "आ बैल मुझे मार"। अध्यक्ष जी तो बाघ की तरह शिकार के घर से बाहर निकलने की इंतजार में बैठे थे। अब जब बैल पीछे पड़ गया है तब जनरब,"रक्षा करो, रक्षा करो" की गुहार लगा रहे हैं। अब आप ही बतायें जो खुद मुसीबत बुलाने पर आमादा हो उसे आडवाणी भी कब तक बचा लेंगे।

शनिवार, 23 मई 2009

मालिकों की आवाज पर नाचता मीडिया

मीडिया जो न करे वह कम है, यानी "राई ते पर्वत करे, पर्वत राई माहिं।" वह आज का साई 'बोले तो' मालिक है। उसके भी दो माई-बाप हैं, एक सरकार और दूसरा कारपोरेट। इन्हीं के लिए वह अपने मालिक की आवाज कुछ इस तरह से ता-ता, थैया करता है कि ,एचएमवी के रिकार्ड पर। उत्तराखंड भी इससे अलग तो नहीं परंतु मुख्यमंत्री की आरती उतारने को लेकर यहां के कुछ दैनिकों के संपादकों का उत्साह देखते ही बनता है, चुनावों में तो यह एक दुर्लभ दृश्य होता है! ऐसा उत्साह तो भगवान बद्रीनाथ के कपाट खुलने के बाद होने वाली पहली आरती के लिए रावल को भी नहीं होता होगा!! इधर चुनाव का ऐलान हुआ उधर मीडिया ने लमलेट "बोले तो" साष्टांग दंडवत होने का ऐलान कर दिया, अलबत्ता राज्य सरकार सेवार्थ बिछने के लिए इन सज्जनों की मुद्राएं उनकी डीएनए संरचना के हिसाब से भिन्न-भिन्न थीं। एक महाशय तो जनरल के रंगरूट बनकर कलम लहराते हुए खुद ही मैदान में उतर आए मानो कह रहे हों,'मो सम कौन बलवंता।'एक लोकल चैनल में इंटरव्यू देते हुए इन्होंने महान उदगार व्यक्त किए कि स्विस बैंकों से काला धन वापस लाने का मामला उत्तराखंड में सबसे प्रभावी चुनावी मुद्दा रहा, तब तक चुनावी नतीजे नहीं आए थे। उत्तराखंड की जनता के फैसले से भाजपा के साथ संपादक जी भी धड़ाम। संपादक जी की बीमारी उनके स्टाफ के सौजन्य से राजधानी की सबसे बड़ी खबर बन गई।

खबरों से बेदख़ल मुन्ना भाई

इस बार नया ट्रेंड नजर आया है, चुनाव प्रचार के आखिरी हफ्ते में बसपा प्रत्याशी मुन्ना सिंह चौहान एकाएक तीन अखबारों से लगभग बेदखल कर दिए गए। जब इसकी दरियाफ्त की गई तो पता चला कि एक सत्तारूढ़ नेता ने इसकी कीमत अदा की थी। यानी अब ऐसा समय आ चुका है जब आप पैसा देकर अपने प्रतिद्वंद्वी की खबरे ब्लैकआऊट करा सकते हैं। जानते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव से चुनाव समीक्षा क्यों बंद की गई? जब सबसे वसूली करेंगे तो भाई चुनावी सच कैसे छापेंगे? धनदाता, अन्नदाता क्या खबर बहादुरों की खटिया खड़ी नहीं कर देगा?

पेड खबर का धंधा

एक अखबार ने और गजब किया। उसने 'पेड खबर'का फार्मूला खोज निकाला। इस फार्मूले में आप अपनी मनपंसद खबरनुमा विज्ञापन इतनी चालाकी से छपवा सकते हैं कि चुनाव आयोग के फरिश्तों को भी इस गोरखधंधे का पता नहीं चलता। जिन विज्ञापननुमा खबरों का दाम चुनाव खर्च में जुड़ना चाहिए था,लोकतंत्र के चौथे खंभे और पहले खंभे की मिलीभगत ने उसमें भी गड़बड़घोटाला कर डाला। प्रेस कौंसिल और चुनाव आयोग दोनों ही देखते रह गए। अपने खबर बहादुरों ने एक और गजब ढ़ाया। इस चुनाव से पहले लोकतंत्र के ये पहरूए किसी दल या प्रत्याशी से पैसा लेकर उसकी खबर छापने का धंधा करते थे।

गुरुवार, 21 मई 2009

मालिक की आवाज पर नाचता मीडिया

मीडिया जो न करे वह कम है, यानी "राई ते पर्वत करे, पर्वत राई माहिं।" वह आज का साई 'बोले तो' मालिक है। उसके भी दो माई-बाप हैं, एक सरकार और दूसरा कारपोरेट। इन्हीं के लिए वह अपने मालिक की आवाज कुछ इस तरह से ता-ता, थैया करता है कि ,एचएमवी के रिकार्ड पर। उत्तराखंड भी इससे अलग तो नहीं परंतु मुख्यमंत्री की आरती उतारने को लेकर यहां के कुछ दैनिकों के संपादकों का उत्साह देखते ही बनता है, चुनावों में तो यह एक दुर्लभ दृश्य होता है! ऐसा उत्साह तो भगवान बद्रीनाथ के कपाट खुलने के बाद होने वाली पहली आरती के लिए रावल को भी नहीं होता होगा!! इधर चुनाव का ऐलान हुआ उधर मीडिया ने लमलेट "बोले तो" साष्टांग दंडवत होने का ऐलान कर दिया, अलबत्ता राज्य सरकार सेवार्थ बिछने के लिए इन सज्जनों की मुद्राएं उनकी डीएनए संरचना के हिसाब से भिन्न-भिन्न थीं। एक महाशय तो जनरल के रंगरूट बनकर कलम लहराते हुए खुद ही मैदान में उतर आए मानो कह रहे हों,'मो सम कौन बलवंता।'एक लोकल चैनल में इंटरव्यू देते हुए इन्होंने महान उदगार व्यक्त किए कि स्विस बैंकों से काला धन वापस लाने का मामला उत्तराखंड में सबसे प्रभावी चुनावी मुद्दा रहा, तब तक चुनावी नतीजे नहीं आए थे। उत्तराखंड की जनता के फैसले से भाजपा के साथ संपादक जी भी धड़ाम। संपादक जी की बीमारी उनके स्टाफ के सौजन्य से राजधानी की सबसे बड़ी खबर बन गई।

बुधवार, 20 मई 2009

कविल्ठा के कालिदास

कालिदास गढ़वाल में कविल्ठा के थे, यह साबित करने के लिए अपने लोकल इतिहासकारों ने कई पापड़ बेले। आखिरकार यह स्थापित हो गया कि वह गढ़वाल के ही थे। लेकिन कई लोगों की तरह अपन भी इसे एक फालतू की कवायद मानते रहे। क्योंकि वह पेड़ की उसी शाखा को काट रहे थे जिस पर बैठे थे। मुझ सहित कई विद्वानों का मानना है कि ऐसा पराक्रम सिर्फ कोई गढ़वाली ही दिखा सकता है, कालिदास को गढ़वाली साबित करने के लिए यह अकेली घटना ही काफी है। यह परंपरा आज तक चली आ रही है, यकीन न हो तो अपने नए नवेले सांसद सतपाल महाराज की जनमपत्री बांच लीजिए। सन 1996 में जातिवाद के उस भीषण चुनावी युद्ध को जरा याद कीजिए जब हरक सिंह की सेना की हुंकार और फुंकार से मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी के समर्थक बूथों पर फटक भी नहीं पाए थे। लेकिन जैसे ही महाराज रेल राज्यमंत्री बने तो अपने परम प्रतापी समर्थक हरक सिंह रावत को उनके पराक्रम का लाभ देने के बजाय उनका साइज छोटा करना शुरू कर दिया। हालांकि सतपाल समर्थकों ने सफाई दी कि हरक का साइज महाराज से बड़ा हो रहा था ऐसे में उसमें थोड़ा कतर-ब्यौंत कर उसकी फिटिंग सही कर दी गई। वे हरक की नाराजगी को बेवजह बताते हैं परंतु हरक समर्थकों का दावा है कि वह कालिदास के अवतार हैं, जिस डाल पर बैठते हैं, पहले उसे ही निपटाते हैं। उनकी भविष्यवाणी है कि अब पौड़ी के विधायक यशपाल बेनाम का नंबर है क्योंकि उसने भी इस चुनाव में महाराज को जिताने में सबसे अहम रोल निभाया।
जरा फिर से कालिदास कथा की चर्चा करें, राजा विक्रमादित्य के दरबार में उनके दबदबे को लेकर तत्कालीन कवियों- लेखकों ने भी उनके पहाड़ी होने पर कुछ वैसा ही हाहाकार मचाया जैसे तीन पहाड़ियों सर्वश्री मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी और वीरेन डंगवाल को साहित्य अकादमी पुरुस्कार मिलने पर जनसत्ता में मचा था। पर तब तक कालिदास सयाने हो चुके थे। वह उन शाखों को काटना सीखा गए थे जिन पर विरोधी खेमे के कवि बैठे रहते थे। बताया जाता है कि वह कविल्ठा की पुश्तैनी जमीन बेचकर मौजूदा भोपाल के आस पास कहीं सैटिल्ड हो गए थे, बावजूद इसके वह पहाड़ की दुर्दशा पर गाहे-बगाहे चिंता व्यक्त करते रहते थे। यह भी कहा जाता है कि वह जीवन भर पहाड़ी कल्चर को नहीं भूले, सुरापान कर अक्सर वह पुराने पहाड़ी गीतों पर नाचने लगते थे। इतिहास में उनके पुत्र को यह कहते हुए पाया गया है कि उनके 'फोरफादर्स'पहाड़ से आए थे। तबसे लेकर अब तक इतिहास कालिदास के वंशजों को लेकर खामोश है।