बुधवार, 20 मई 2009

कविल्ठा के कालिदास

कालिदास गढ़वाल में कविल्ठा के थे, यह साबित करने के लिए अपने लोकल इतिहासकारों ने कई पापड़ बेले। आखिरकार यह स्थापित हो गया कि वह गढ़वाल के ही थे। लेकिन कई लोगों की तरह अपन भी इसे एक फालतू की कवायद मानते रहे। क्योंकि वह पेड़ की उसी शाखा को काट रहे थे जिस पर बैठे थे। मुझ सहित कई विद्वानों का मानना है कि ऐसा पराक्रम सिर्फ कोई गढ़वाली ही दिखा सकता है, कालिदास को गढ़वाली साबित करने के लिए यह अकेली घटना ही काफी है। यह परंपरा आज तक चली आ रही है, यकीन न हो तो अपने नए नवेले सांसद सतपाल महाराज की जनमपत्री बांच लीजिए। सन 1996 में जातिवाद के उस भीषण चुनावी युद्ध को जरा याद कीजिए जब हरक सिंह की सेना की हुंकार और फुंकार से मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी के समर्थक बूथों पर फटक भी नहीं पाए थे। लेकिन जैसे ही महाराज रेल राज्यमंत्री बने तो अपने परम प्रतापी समर्थक हरक सिंह रावत को उनके पराक्रम का लाभ देने के बजाय उनका साइज छोटा करना शुरू कर दिया। हालांकि सतपाल समर्थकों ने सफाई दी कि हरक का साइज महाराज से बड़ा हो रहा था ऐसे में उसमें थोड़ा कतर-ब्यौंत कर उसकी फिटिंग सही कर दी गई। वे हरक की नाराजगी को बेवजह बताते हैं परंतु हरक समर्थकों का दावा है कि वह कालिदास के अवतार हैं, जिस डाल पर बैठते हैं, पहले उसे ही निपटाते हैं। उनकी भविष्यवाणी है कि अब पौड़ी के विधायक यशपाल बेनाम का नंबर है क्योंकि उसने भी इस चुनाव में महाराज को जिताने में सबसे अहम रोल निभाया।
जरा फिर से कालिदास कथा की चर्चा करें, राजा विक्रमादित्य के दरबार में उनके दबदबे को लेकर तत्कालीन कवियों- लेखकों ने भी उनके पहाड़ी होने पर कुछ वैसा ही हाहाकार मचाया जैसे तीन पहाड़ियों सर्वश्री मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी और वीरेन डंगवाल को साहित्य अकादमी पुरुस्कार मिलने पर जनसत्ता में मचा था। पर तब तक कालिदास सयाने हो चुके थे। वह उन शाखों को काटना सीखा गए थे जिन पर विरोधी खेमे के कवि बैठे रहते थे। बताया जाता है कि वह कविल्ठा की पुश्तैनी जमीन बेचकर मौजूदा भोपाल के आस पास कहीं सैटिल्ड हो गए थे, बावजूद इसके वह पहाड़ की दुर्दशा पर गाहे-बगाहे चिंता व्यक्त करते रहते थे। यह भी कहा जाता है कि वह जीवन भर पहाड़ी कल्चर को नहीं भूले, सुरापान कर अक्सर वह पुराने पहाड़ी गीतों पर नाचने लगते थे। इतिहास में उनके पुत्र को यह कहते हुए पाया गया है कि उनके 'फोरफादर्स'पहाड़ से आए थे। तबसे लेकर अब तक इतिहास कालिदास के वंशजों को लेकर खामोश है।

1 टिप्पणी:

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